परिवेश

 

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 1-पतंगबाज़ 

 

जिन दिनों मैं स्कूल में था और पतंग उढ़ाता था । पूरी गर्मी की छुट्टियों में मुहल्ले के दो ही सिकंदर हुआ करते थे । एक वो जो सबसे अधिक दूसरों की पतंगें काटे या वो जो कटी पतंगें लूटे । पतंग लूटना एक कला है और अगर खेलों में इसे शामिल किया जाय तो कुछ कुछ ये रग्बी से मिलता जुलता लगता है । लेकिन रगबी ताकत का खेल है और पतंग लूटना कौशल का काम । हवा की दिशा और गति का अनुमान, आसमान में पतंग की तरफ देखते हुए सामने या इधर उधर भागना, और पतंग के नीचे आते ही उसपर झपटना और उसे लूट कर बाकी लुटेरों के बीच से साबुत निकाल ले जाना बड़े ही कौशल का काम है ।

मोहल्ले का एक दादा भी होता था। इस पद के दो दावेदार थे, विजय और कैलाश । दोनों समय समय पर एक दूसरे को चैलेंज दिया करते थे । एक दिन कैलाश ने विजय को कुश्ती के लिए ललकारा ।

कैलाश ने मोहल्ले के बच्चों के सामने कहा, “ विजय ,दम हो तो आज कुश्ती हो जाये। विजय कैलाश की ओर बढ़ते हुए बोला, “ आओ हो जाये।”

कैलाश दो कदम पीछे हटा और बोला, “ अरे यहाँ नहीं, मुन्नू चाचा के अखाड़े में”

मुन्नू चाचा का असली नाम मुनव्वर खान था। इलाके के मशहूर पहलवान थे। साधनों के आभाव में ज्यादा आगे न बढ़ सके । अपने शौक को जिंदा रखने के लिए उन्होने एक आखाडा खोला था जिसमें वो बच्चों को निशुल्क कुश्ती सिखाते थे । दोपहर में आखाडा खाली रहता था और खुला भी रहता था ।

विजय, कैलाश और मोहल्ले के कई लड़के दोपहर में मुन्नू चाचा के अखाड़े में पहुंचे । दोनों जोश में थे । उन्होंने ऊपर के कपड़े उतार दिये। नीचे वो हाफपैंट पहने थे वो पहने रहे।

पहले दोनों ताल ठोक कर आमने सामने खड़े हुए। फिर दोनों करीब आये और एक दूसरे  के दोनों हाथ पकड़ कर जोराजमाइश करने लगे । इसके बाद दोनों गुंथ गये। कभी कैलाश नीचे और कभी विजय । वे एक दूसरे को चित करने की कोशिश कर रहे थे । पाँच मिनट ऐसा ही चलता रहा । दोनों पूरी तरह धूल धूसरित हो चुके थे । अब विजय कैलाश से स्वयं को छुड़ा कर खड़ा हो गया । कैलाश जैसे ही खड़ा हुआ विजय ने उसकी गर्दन में अपना दाहिना हाथ डाल कर टंगड़ी लगायी और नीचे की ओर झटका दिया । कैलाश संभल नहीं पाया और सीधा चित गिरा । उसके गिरते ही विजय उसके ऊपर बैठ गया । सभी लोग चिल्लाये “चित्त हो गया, चित्त हो गया ।” दोनों एक दूसरे से अलग होकर खड़े हो गये । कुछ लोगों ने कैलाश को सांत्वना दी । कैलाश और विजय ने अपने बदन झाड कर कपड़े पहने । दोपहर हो चली थी अतः सब लोग अपने अपने घर चले गये

कैलाश कुश्ती में हारने से थोड़ा सा हतास था । खाना खाने के बाद कैलाश मेरे घर आ रहा था तो रास्ते में उसे विजय और उसके कुछ साथी मिले । विजय ने उसे चिढ़ाते हुए कहा, “कैलाश,कुश्ती हो जाये ?” और विजय और उसके साथी हंस दिये । कैलाश कुछ नहीं बोला और मेरे घर आ गया।

आकर कैलाश ने मुझसे कहा, “आज शाम मैं तुम्हारी छत से पतंग उड़ाऊंगा ।”

मैंने पूछा, “क्यों?”

वह बोला, “तुम्हारी छत से विजय की छत दिखती है और उससे पेंच लड़ाने में आसानी होगी।“

मैंने हँसते हुए कहा, “ तो कुश्ती का बदला लेना है!”

वो बोला, “ऐसा ही समझ लो। तुम तो ये बताओ कि शाम को मैं आऊँ या नहीं”

मैंने कहा, “आ जाना भाई ।”

वह आश्वस्त होकर चला गया ।

अब कैलाश के सामने पतंगें और महंगा वाला स्पेशल माँजा और सादे धागे की रील खरीदने की समस्या थी । रोज की सामान्य पतंग बाजी के लिये तो उसके पास पैसे थे किन्तु आज का मामला अलग था। थोड़े ज्यादा पैसों की आवश्यकता थी । पापा टूर पर गये थे । मम्मी से उसने पैसे मांगे । मम्मी ने सिर्फ 5 रुपये दिये । फिर उसे अपनी गुल्लक की याद आयी । उसने गुल्लक तोड़ दी और पैसे गिने । कुल 250 रुपए निकले । उसमें से 50 रुपए उसने जेब में रखे और बाकी पैसे अपने बक्से में रख दिये ।

शाम को कैलाश पतंगे, नये धागे और माँजे से भरी चरखी लेकर आ गया। पतंग उढ़ाने का समय हो चुका था। सारे पतंगबाज अपनी अपनी छतों पर आ गये थे । कुछ पतंगें आसमान में दीखायी देने लगी थीं । जो बच्चे पतंग नहीं उड़ा रहे थे वे पतंगें कटने की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकी वे उन्हें लूट सकें।

विजय अपनी छत पर आ चुका था । कैलाश को मेरी छत पर देख कर चौंका । मैंने उसकी तरफ अपना हाथ हिलाया तो उसने भी हाथ हिला के जवाब दिया । उसने हरे रंग की एक बड़ी सी पतंग उड़ायी ।  कैलाश ने मुझे चरखी थमाई और एक लाल रंग की बड़ी से पतंग उड़ायी। हवा अच्छी चल रही थी । शीघ्र ही दोनों पतंगे ऊंचाई पर पहुँचकर स्थिर हो गयी । कुछ देर बाद विजय अपनी पतंग को कैलाश की पतंग के पास तक लाया और वापस ले गया । थोड़ी देर बाद फिर आया । अबकी बार कैलाश अपनी पतंग को उसकी पतंग के ऊपर ले गया और नीचे दबा कर ढील दे दी । तत्काल विजय की पतंग कट के हवा झूलती हुई नीचे चली गयी ।

दो मिनट में विजय की दूसरी नीले रंग की पतंग आसमान में चढ़ आयी । विजय अब आक्रामक था । उसकी पतंग, बाज पक्षी की तरह कैलाश की पतंग पर झपटी और उससे लिपट गयी । दोनों ने ढील दी और देते गये पतंगे एक दूसरे से उलझी हुई बहुत दूर निकल गयीं । तब अचानक कैलाश ने तेजी से अपनी पतंग की डोर खींच दी और विजय की पतंग कट गयी । अबकी बार कैलाश खुशी से चिल्लाया, “वो काटा है ...”

दो पतंगें लगातार कटने से विजय थोड़ा खीज गया और उसने सोचा कैलाश की एक पतंग तो काटके छोड़ेगा। कैलाश ने आज ठाना हुआ था कि विजय को सबक सिखाना है । दो पेंच काटकर उसने आगे का कुछ मीटर माँझा तोड़ के निकाल दिया । फिर पतंग बांध कर उड़ायी और विजय की दो पतंगे और काट दीं । विजय के पास न और पतंग बची न माँझा ।

कैलाश ने कुश्ती में हार का बदला ले लिया था और एक दिन का सिकंदर तो बन ही गया था ।

 

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2-बंद हड़ताल 

वास्को के पेट में चूहे कूद रहे थे और वह सोच रहा था कि न जाने कैसे कुछ लोग कुछ मसलों पर कई कई दिनों की भूख हड़ताल कर लेते है । 
शहर में सन्नाटा पसरा था। किसी पार्टी ने किसी बात पर बंद का आह्वान किया था । लोग अपने घरों में अपने परिवार के साथ बंद का आनंद मना रहे थे । 
बंद की घोषणा होते ही आम आदमी को इन बातों से मतलब रहता है कि बसें ,ऑटो रिक्शा आदि चलेंगे या नहीं और कौन सी सेवायें बंद से मुक्त रखी गयीं हैं । 
बंद में तोडफोड के भय थे लोग अपनी दुकाने नहीं खोलते हैं और अपने वाहनों को भी नहीं चलाते । इस प्रकार लगभग सभी बंद सफल होते हैं । जनता को दिक्कत तो बहुत होती है लेकिन क्या करे लोकतंत्र में विरोध करने का ये संविधान सम्मत तरीका है । 
वास्को अपनी बाइक से लगभग पूरे शहर का चक्कर लगा आया था । कोई ढाबा ,रेस्तरां नहीं खुला था यहाँ तक सड़क के किनारे वाले चाय के ठेले भी बंद थे। 
अब वास्को को एहसास हुआ उसे भी खाना बनाना सीखना चाहिये । वास्को एक जेन्ट्स हॉस्टल में सिंगल बेड रूम में रहता था और एक स्थानीय आई टी कंपनी में काम करता था ।
दिन भर तो वास्को को भूखा ही रहना पड़ा । गनीमत थी की बंद शाम छ: बजे तक था । अतः कुछ दुकाने खुल गयी थीं । वास्को बाज़ार जाकर एक हॉट प्लेट और थोड़ी मात्रा में दाल चावल ,आटा ,चाय की पत्ती ,शक्कर, दूध कुछ आवश्यक बर्तन आदि ले आया ।
अपने कमरे में वापस आकर उसने सामान रखा और लैपटाप खोल के बैठ गया । उसको अपने वाईफाई से कनेक्ट करके गूगल खोला और उसमें खोजा ‘चाय बनाने की विधि । लैपटाप के स्क्रीन पर चाय बाने की विधि लिखी हुई आ गयी । उसने उसे पूरे ध्यान से पढ़ा और फिर हॉटप्लेट पर चाय के लिये पानी चढ़ा कर उसके प्लग को स्विच में लगा दिया । वास्को ने इंटरनेट से प्राप्त विधि के अनुसार चाय बना ली । जब उसने वो चाय चखी तो खुशी से झूम उठा । चाय पहली बार में ही अच्छी बन गयी थी । 
रात के खाने के लिये इसी प्रकार कंप्यूटर और इंटरनेट की मदद से उसने खिचड़ी बनायी । 
इस प्रकार अभ्यास करते हुये थोड़े दिनों में वास्को पूरा खाना बनाना सीख गया । 
अब कहीं बंद की चर्चा होती है वास्को मुस्करा कर कहता है , “आये दिन बंद ठीक नहीं लेकिन कभी कभी कर सकते हैं ये एक लोकतान्त्रिक अधिकार है । किन्तु ये शांतिपूर्ण होना चाहिये ।”

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3-सौतेली माँ 

सौतेली माँ

उन दिनों हमारे यहाँ एक उम्र के बाद माता पिता को बच्चों का स्पर्श अपने पैरों पर और बच्चों को  माता पिता का स्पर्श अपने सर पर ही मिलता था । बच्चे माता पिता के पैर छूते थे तो माता पिता उनके सर पर हाथ रख कर आशिर्वाद देते । लाड़ प्यार सब मन में रहता था । गले लगने लगाने का भी चलन नहीं था । प्रेम और स्नेह का सार्वजनिक प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जाता था । जब कभी बच्चे माँ बाप से लाड़ में लिपटते तो थप्पड़ खा जाते थे और ठीक से बैठने उठने की नसीहत मिल जाती थी ।

जो प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन करते उन्हें बेशर्म या अति आधुनिक समझा जाता था । ये ब्लैक एंड व्हाइट टी वी के आने से भी पहले की बातें हैं ।

फिर टी वी आ गया और जमाने भर पे छा गया । हमारी बस्ती में भी हर घर में टी वी लग गया ।

टी वी पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रमों में सबसे अधिक लोकप्रिय थे चित्रहार और सिनेमा । फिल्म में तरह तरह की कहानियाँ और दृश्य दिखाये जाते।

मोहल्ले में एक लड़का रहता था जिसका नाम गुड्डू था और उमर लगभग दस वर्ष । मेरी भी उम्र इतनी ही थी । गुड्डू के घर में उससे 2वर्ष बड़ा भाई टुक्कू और 3 वर्ष छोटी बहन टीना थी । उसके बगल के मकान में एक नये पड़ोसी आये थे । ये पड़ोसी थे सक्सेनाजी उनकी पत्नी नीलू आंटी और उनकी 6 वर्ष की बेटी मिनी।

एक दिन नीलू आंटी ने अपनी छत से अपने घर के नीचे कूड़ा फेंका तो कुछ कूड़ा हवा से उड़ कर गुड्डू के मकान के सामने जा गिरा । इस बात पर गुड्डू की मम्मी शांति की नीलू आंटी से कहा सुनी हो गयी।

उन दिनों व्यवसायिक फिल्मों के फोर्मूलों में दो प्रचलित फोर्मूले थे कुम्भ के मेले में भाइयों के बिछड़ने का और सौतेली अत्याचारी माँ का जो अपने बच्चों को प्यार करती थी और सौतेले बच्चे का तिरस्कार ।

एक दिन ऐसी ही कोई सौतेली माँ की पिक्चर टी वी पर दिखायी गयी थी । गुड्डू ने भी ये पिक्चर देखी थी ।

उसके अगले ही दिन जब गुड्डू अपने घर के सामने अकेले बैठा था । नीलू आंटी ने अपनी छत से धीमी आवाज में उसे पुकारा । जब उसने ऊपर देखा तो इशारे से अपने घर आने को कहा । बगल के मकान में ही जाना था । गुड्डू नीलू आंटी के दरवाजे पर पहुँच गया ।

नीलू ने दरवाजा खोला और गुड्डू को कहा, “ आओ अंदर आ जाओ बेटा।“

गुड्डू थोड़ा शर्माता, झिझकता अंदर चला गया ।

नीलू आंटी ने गुड्डू के सर पर हाथ फेरा, “तुम्हारा नाम गुड्डू है न ?”

गुड्डू ने उत्तर दिया, “ हाँ। ” 

आंटी ने एक कुर्सी की ओर इशारा कर कहा, “उधर बैठो , मैं अभी आती हूँ ।

नीलू आंटी अंदर गयीं और कुछ देर में एक ग्लास में रूह आफजा शर्बत और एक प्लेट काजू लेकर लौटी। खाने पीने का सामान गुड्डू के सामने टेबल पर रखकर नीलू सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी ।

“ खाओ पियो, शरमाना नहीं,” नीलू ने जोर देकर कहा । गुड्डू धीरे धीरे शर्बत पीने और काजू खाने लगा।

नीलू ने पूछा, “तुम किस क्लास में पढ़ते हो ?”

गुड्डू ने कहा, “मैं चौथी क्लास में पढ़ता हूँ । ”

नीलू बोली, “आज स्कूल की छुट्टी है न इसलिये मेरे बच्चे अपने पापा के साथ अपने बुआ से मिलने गये हैं । कभी आकर उनसे मिलना और दोस्ती करना ।”

फिर नीलू आंटी ने पूछा, “तुम्हारी मम्मी घर पर नहीं हैं क्या?”

गुड्डू ने कहा, “आंटी। मम्मी घर पर ही हैं ।”

नीलू आंटी बोलीं, “फिर तुम अकेले उदास से बाहर क्यों बैठे थे ? मेरे बच्चे तो छुट्टी के दिन मुझे एक मिनट भी नहीं छोडते । हर वक्त मुझसे लिपटे रहते हैं । तुम्हारी माँ क्या तुमसे प्यार नहीं करती?”

गुड्डू को कोई जवाब नहीं सूझा । वह चुप रहा ।

तभी नीलू आंटी ने कहा, “अच्छा गुड्डू अब तुम घर जाओ । मम्मी चिंता करेगी ।”

गुड्डू आंटी को नमस्ते करके अपने घर चला आया ।

गुड्डू के दिमाग में देर तक ये वाक्य घूमता रहा ‘क्या तुम्हारी मम्मी तुम्हें प्यार नहीं करती ?’

प्यार का बाहरी प्रत्यक्ष प्रमाण उसके पास था नहीं। उसकी माँ उसे गले लगाती नहीं थी। सर पर हाथ फेर कर या माथा चूम कर लाड़ करती नहीं थी जैसा पिक्चर में दिखाते थे या नीलू आंटी करती थीं । उसे अपने सर पर नीलू आंटी के हाथ का स्पर्श याद आया । उसे लगने लगा यही सच है कि माँ उसे प्यार नहीं करती । फिर उसने विचार किया “किन्तु प्यार न करने की वजह क्या हो सकती है और उसे एक झटका सा लगा । उसके दिमाग में विचार आया, “कहीं मैं सौतेला तो नहीं । कहीं मेरी माँ सौतेली माँ तो नहीं ।”

फिर उसने स्वयं से तर्क किया , “ ऐसे तो वो टुक्कू और टीना से भी प्यार नहीं करती। क्या वे भी सौतेले हैं?”

उसने माँ के व्यवहार के बारे में और गहराई से सोचा । उसे ध्यान आया, ‘टीना कभी कभी माँ से लिपटती है तो माँ हंसकर उसे अलग करती हैं ।’

और उसे याद आया, ‘ माँ टुक्कू को पढ़ाई के लिए कभी नहीं डांटतीं , उसे अक्सर डांटतीं हैं।’

आवेश में उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि टुक्कू अपने आप ही अच्छे से पढ़ता था जबकि वो खेलता ज्यादा था ।

गुड्डू ने निष्कर्ष निकाल लिया कि वह ही सौतेला है और माँ सौतेली माँ है । फिर वो ये सोच के परेशान हो गया कि उसकी असली माँ कौन है और कहाँ है ।

सोच सोच कर उसका सर चकराने लगा । वो घर में सीधा जाकर माँ के सामने खड़ा हो गया । उसका चेहरा उस समय गुस्से और दुख से लाल हो रहा था । आँखों में आँसू भरे थे और बदन काँप रहा था ।

माँ ने उसे देखते ही पूछा, “गुड्डू क्या हुआ ?तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं ?”

गुड्डू ने सीधा सवाल पूछा, “मेरी माँ कहाँ है ?”

माँ चौंक गयी और बोली, “ये कैसा सवाल है ?मैं कौन हूँ ?”

गुड्डू ने उत्तर दिया, “तुम तो मेरी सौतेली माँ हो ।”

“हे भगवान ।” कह कर माँ जमीन पर बैठ गयीं।

ये जो समस्या पैदा हुई थी इसका समाधान गुड्डू की काउन्सलिन्ग करने के बाद एक सप्ताह में पूरा हो सका था। थोड़ी कौंस्लिंग की आवश्यकता माँ को भी पड़ी थी ।

भगवान जाने ये नीलू आंटी का बदला था या कुछ और ...

 

 

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4-हिचकोले 

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5-शुद्ध देसी दोस्ती 

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5-दूसरी पहाड़ी 

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6-षड्यंत्र 

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